आखिर कितना वक़्त गवाता,
उलझन से कब तक मुह फिराता
चुनकर एक हज़ारों में,
मैंने कल एक कील खरीदी


“दो कौड़ी की कील है ये तो”
एक नज़र देख, दोस्त ने बोला
चाचा कितना ही चुन के लाये
एक साल न कपड़े टिक पाए

देख मिश्रा जी ने राग अलापा
घाटे का रहा सौदा बतलाया
“हमसे एक बार पूछ तो लेते,
भीषण डिस्काउंट दिलवा देते”


घरवाले सुनकर फ़ोन पे बोले,
कीलों से यहाँ भरे हैं झोले
नयी खरीद के क्यूँ ले आये
अचार संग क्यूँ नही मंगवाये


ऑफिस पहुँच कर नाम न लेता
पर रोज़ नया बवाल नही होता
न्यूज़ चैनल उदास थे बैठे
सबने अपने ही टॉपिक छेड़े
कब जाने मेरे मुह से निकली
मैंने कल एक कील खरीदी


फिर कीलों पर जो धागा उध्दा
सारी सिलाई ले कर फिसला
दादा की खरीदी, नानी की प्यारी
जंग विरोधी, शायद सोने से संवारी
सब कीलों का ताना बाना
मिलकर बन गया चर्चा का बहाना


सोचा कुछ कम मशवरे सह लूं
मिश्रा जी वाला मॉडल ले लूं
उनकी तीखीं बातें, नाख़ून फेरें
कांच सी प्लेट से कान पे मेरे


घर पहुंचा तो गौर से देखा,
नोक कील की तनिक थी टेढ़ी,
शुक्र करो ऑनलाइन खरीदी,
झट रिप्लेसमेंट की अर्जी दे दी


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